Saturday, October 13, 2012

मूवी रिव्यू: अय्या, ये क्‍या?


कुछ तो बात है कि बॉलीवुड की फिल्‍में आमतौर पर इस बात पर ज्‍यादा जोर नहीं देती हैं कि उनके मुख्‍य किरदार देश के किस हिस्‍से के हैं। ऐसे में होता यह है कि हमारे मुख्‍य अभिनेता और अभिनेत्रियां अपनी छवि को दोहराते हुए ही काम चला लेते हैं। दर्शकों को भी इससे ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ता।
रानी मुखर्जी लगभग दो दशकों से फिल्‍मों में हैं। अभिनेत्री के रूप में उनकी अपनी एक छवि रही है। इस फिल्‍म में वे एक बेहद दकियानूसी कट्टर महाराष्‍ट्रीयन परिवार की एक कामकाजी महिला की भूमिका निभा रही हैं।
निश्चित ही अपनी हीरोइन की प्रचलित छवि को त्‍यागकर मिडल-क्‍लास मीनाक्षी के चरित्र में पैठने के लिए उन्‍हें खूब मेहनत की जरूरत थी। कुछ मौकों पर वे भरसक कोशिश करती हैं तो कुछ मौकों पर नहीं कर पाती हैं। लेकिन हम शुरू से ही फिल्‍म में उनकी उपस्थिति से बहुत प्रभावित नहीं हो पाते।
चूंकि इस फिल्‍म की कहानी में भी ज्‍यादा दम नहीं है, लिहाजा एक के बाद दूसरे चरित्र चित्रण से भी ज्‍यादा मदद नहीं मिलती।
मीनाक्षी एक आर्ट्स कॉलेज में लाइब्रेरियन का काम करती हैं। लाइब्रेरी में उसके साथ काम करने वाली एक अन्‍य महिला लेदर स्‍कर्ट्स और लेगीज पहनती है और नजरें बचाकर जॉन अब्राहम की अर्धनग्‍न तस्‍वीरों को निहारती है।
खुद मीनाक्षी एक स्‍टूडेंट के प्रति आकर्षित हो जाती है। वह उसके आगे-पीछे घूमती रहती है।
लिहाजा, यहां पुरुषों के प्रति आकर्षण से भरी दो महिलाएं हैं। दोनों पुरुष भी आकर्षक हैं या आकर्षक दिखने का प्रयास करते हैं। हैरानी की बात नहीं कि यह एक पुरुष निर्देशक की फिल्‍म है। इसलिए यह एक पुरुष की नजर से देखी गई फिल्‍म बन जाती है।
एक नॉर्मल दुनिया में मीनाक्षी की शादी फारूक शेख नुमा किसी भले आदमी से हो जाती, जिसे उसके पैरेंट्स द्वारा उसके लिए चुना गया हो। लेकिन मीनाक्षी एक दूसरी दुनिया में जीती है।
उसकी कल्‍पनाओं में बॉलीवुड की रोमांस गाथाएं रची-बसी हैं : 'क्‍यूएसक्‍यूटी, एचएएचके, डीडीएलजे, एमपीके।' वह अपने सपनों के पुरुष का पीछा करती रहती है। उसके पिता एक ही बार में चार सिगरेटें एक साथ फूंक डालते हैं। उसका भाई आस-पड़ोस के पालतू कुत्‍तों की देखभाल करता है।
उसकी नानी मां सनकी किस्‍म की हैं और इलेक्‍ट्रॉनिक व्‍हीलचेअर में बैठकर इधर-उधर उड़ती फिरती हैं। यह एक अजीबोगरीब कुनबा है, जिसमें किसी चीज की कोई तुक नहीं है।
जिन लोगों को विभिन्‍न शॉर्ट फिल्‍म कॉम्‍पीटिशंस में ऊटपटांग डिप्‍लोमा फिल्‍में या प्रयोगात्‍मक लघु फिल्‍में देखने की आदत है, उन्‍हें इस तरह की फिल्‍म से कोई खास दिक्‍कत नहीं होगी।
इस तरह की फिल्‍में स्‍क्रीन पर जितनी मजेदार दिखती हैं, उससे ज्‍यादा वे अपने नैरेशन में रोचक होती हैं और उन्‍हें सीधे यूट्यूब पर चले जाना चाहिए।
फर्क इतना ही है यह फिल्‍म शॉर्ट फिल्‍मों से थोड़ी बड़ी है और इसमें आइटम सॉन्‍ग्‍स हैं, टॉपलाइन स्‍टार कास्‍ट है, यह बहुप्रचारित है और इसे एक मेनस्‍ट्रीम फिल्‍म की तरह थियेटरों में रिलीज किया गया है।
मुझे तो रानी मुखर्जी के प्रशंसकों के लिए अफसोस होता है, जो शायद इस वक्‍त किसी मल्‍टीप्‍लेक्‍स का महंगा टिकट लेकर अपने बाल नोंच रहे होंगे।

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